Saturday, January 23

इंसान ढूंढ रहा हूं...

शहरों में, बस्तियों में, सियासी हस्तियों में
बड़ों में, नन्हों में, किताबों के पन्नों में 
इंसान ढूंढ रहा हूं

जो धंस गया है जाति के दलदल में
गुम हो गया है सियासी प्रपंच-छल में 

अपने ही ईश को बड़ा बनाने की चाह में
जो खो गया है अधर्म की राह में  
इंसान को ढूंढते परेशां-हैरान हो गया
कांटो भरी राह है, लहूलुहान हो गया

जेहनियत के खांचों में कटा-पिटा, बंटा-बंटा
हर इंसान अब हिंदू-मुसलमान हो गया

रंग-रूप,वेश का हो रहा कारोबार है
नफरतों के बीज ले रहे पेड का आकार है

ये कौन हैं जो कर रहे मानवता पे प्रहार है
जवाबों के इंतज़ार में सवाल हो गया

छीनकर, फोड़कर, तोड़कर, मारकर
क्या पा लेगा तू युद्ध ये जीतकर

छल कपट छोड़ दे, तोड़ दे ये भरम
विनाश की राह ही ले जाएगा ये चरम

हर प्‍यासी चट्टान को प्यार से जो सींच दे
भर दे हर उदास आंगन को जो बहार से

हर ओर जो बिखेर दे मौसम की मुस्कान को
मैं ढूंढ रहा हूं ऐसे ही इंसान को 

                    सुनील राऊत 

Wednesday, January 20

इस रोहित पर कोई तो बात करो…


डॉक्टर बाबा साहेब की तस्वीर हाथों में लिए एक नौजवान रोहित, अब ये हमारे बीच नहीं है। दुनिया का सबसे कायराना काम किया है इसने लेकिन मुझे इसकी इस हरकत पर संदेह है! जो छात्र अपने बचपन से गरीबी से लड़कर हैदराबाद यूनिवर्सिटी पहुंच सकता है, जिसके शब्दों की धार इतनी तेज़ हो, जिसके सपने इतने विशाल हो वो इतना छोटा कदम नहीं उठा सकता! रोहित को मारा गया है और उसे मरने के लिए उकसाने का गुनाह उनके मार्गदर्शकों के नाम ही दर्ज होना चाहिए। मैं तो कहूंगा कि उसे मरने के लिए प्रोत्साहित किया गया है।

रोहित के सुसाइड नोट को पढ़ने के बाद उसमें छिपे बेहतरीन लेखक के दर्शन होते हैं। जो इंसानी समाज को सवालों के सीखचों में खड़ा करता है लेकिन दूसरे ही पल उसकी कुछ पुरानी तस्वीरें उसके अंदर के उस कट्टर रोहित से मुखातिब कराती है जिसके जेहन में एक धर्म विशेष के लिए जहर भरा पड़ा है। बहस इसपर होनी चाहिए कि रोहित के दिमाग में ये जहर किसने भरा? कौन हैं वो जिसने भविष्य के सितारे को एक कट्टर रोहित बना दिया।

मुझे इसपर भी संदेह है कि अंबेडकर इनके आदर्श थे। अंबेडकर अगर रोहित के आदर्श होते तो वो एक आतंकी याकूब मेनन की फांसी का विरोध कर अंबेडकर के लिखित संविधान की सार्वजनिक धज्जियां नहीं उड़ाता। अंबेडकर के लिखित संविधान के दायरे में सुनाई गई सज़ा पर सवाल उठाना मतलब उस संविधान पर सवाल उठाना, उसके निर्माता पर सवाल उठाना जो उसके कथित आराध्य ने लिखा है। तो फिर रोहित अंबेडकर का अनुयायी कैसे हो सकता है ?

ज़रूर वो अंबेडकर के नाम का इस्तेमाल कर अपनी सियासत की साध रहा था और इसकी पुष्टी उन वीडियो में होती है जब वो एक छात्र संगठन के लोगों से कैंपस में लड़ाई करते पाया जाता है। उस लड़ाई में रोहित की जुबान से निकले शब्दों पर मुझे घोर आपत्ती है, वो कैसे किसी धर्म विशेष के बारे में, उसके प्रतिकों के बारे में ये टिप्पणी कर सकता है ?

रोहित के पत्र को पढ़कर मैं उसकी प्रतिभा का मुरीद हो गया था। सोचा उसकी इस प्रतिभा के गहन दर्शन के लिए उसके फेसबुक पेज को खंगालना चाहिए लेकिन वहां पहुंचते ही मेरा वो भ्रम भी टूट गया। फेसबुक पर रोहित ने स्वामी विवेकानंद के बारे में जो विचार प्रकट किए है वो भी घोर निंदनीय है। रोहित ने स्वामी जी की जन्मजयंति पर फेक इंटेलैक्चुअल नाम से एक कार्यक्रम भी आयोजित किया था। रोहित के विचार बताते हैं कि रोहित ने स्वामी जी को पढ़ा या जाना ही नहीं। उसके ये विचार स्वामी जी के बारे में उसके सतही ज्ञान के परिचायक है।  

रोहित की प्रतिभा यही तक सीमित नहीं थी, रोहित यूनिवर्सिटी में फसाद को फैलाने के लिए बीफ पार्टियों का आयोजक भी रह चुका है। मजफ्फरनगर दंगों पर डॉक्यूमेंट्री फिल्म के प्रदर्शन को लेकर विवादों में आ चुका है। रोहित और उसके साथियों पर पिछड़ा वर्ग के एक छात्र के साथ मारपीट का आरोप है, जो इसवक्त अस्पताल में भर्ती है। बताते ये भी है कि रोहित ने हॉस्टल के अपने कमरे को याकूब मेमोरियल घोषित कर वहां याकूब को श्रद्धांजलिजैसी गोष्ठियां भी आयोजित की। रोहित के रूप में एक इंसान, एक छात्र एक अच्छे लेखक की मौत पर मुझे दुख है लेकिन उस इंसान में बसने वाले उन्मादी रोहित के प्रति मेरी कोई संवेदना नहीं है।  

अब कुछ सवाल रोहित की लाश पर गिद्धों की तरह मंडराने वाले सियासी नेताओं से। टाइम्स ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट के मुताबिक रोहित से पहले भी इसी विश्वविद्यालय के 9 दलित स्कॉलर आत्महत्या कर चुके हैं। 2008 में सेंथिल कुमार ने जहर खाकर जान दे दी थी, मदारी वेंकटेश ने तो अप्रैल 2013 में हॉस्टल रूम में आत्महत्या की, दोनों की आत्महत्या के पीछे वजहें यही थी, भेदभाव। तो इस पर चर्चा क्यों नहीं हुई? इस पर सियासत क्यों नहीं हुई? इन छात्रों की मौत पर इतना हंगामा क्यों नहीं बरपा? बाकी नौ आत्महत्याएं रोहित के बरक्स सुर्खी भी क्यों नहीं बनी? दलितों के उत्थान के लिए लड़ने,मरने वाली संस्थाएं तब कहां थीं ? या ये सब हैदराबाद में फरवरी में होने वाले निगम चुनाव से पहले की तैयारी है ?


मुझे मालूम है सवाल लाजवाब ही रह जाएंगे फिर भी पूछ रहा हूं।

Tuesday, January 19

एक शिक्षक को समर्पित...


दर्द को अल्फाज़ बनाता हूं 
सपनों को परवाज़ बनाता हूं
ख्वाबों की नुमाइश में नहीं है मेरा यकीन
मैं सपने सहेजने के लिए दराज़ बनाता हूं

रात को दिन, दिन को रात बनाता हूं
अरमानों की स्याही से कायनात बनाता हूं
तकने वाले तकते रहे हाथ की लकीरों को
मैं आने वाले कल को आज बनाता हूं 

रुआसे चेहरों पर हंसी लाता हूं
खेल-खेल में संसार दिखाता हूं  
सबकी शिकायतें रखता हूं सर-आंखों पर
तब ज़माना बदलने के लिए आवाज़ बनाता हूं

चूने की चॉक से आकाश लिखता हूं
अंधेरों को रौशन करता प्रकाश लिखता हूं
ज़माना बनाए हेलिकॉप्टर, हवाई जहाज़
मैं नौसिखिए परिंदों को बाज़ बनाता हूं

दुनिया देखने के लिए सैर कहां ज़रूरी है ?
मैं किताबों के कोनों में दुनिया दिखाता हूं
मत करो किताबों में मज़हब खोजने की कोशिश
मैं किताबों से आरती-नमाज़ बनाता हूं
                        सुनील राउत