Thursday, February 11

ग़ज़ल में किसान

अपनी किस्मत को मिट्टी में बोकर आ गया
त्योहार, खुशियां, हँसी सब गिरवी कर आ गया

उधार के बीजों से बनाने अपनी तकदीर
हल चलाकर हाथों की लकीरें मिटाकर आ गया

साहूकार को इसबार दे आया हूं पक्की तारीख

कुदरत के धोखों को चुनौती देकर आ गया

जो मुक़म्मल हुए न कभी संजो रक्खे हैं मैंने
उन ख्वाबों की खातिर लंबी नींद सोकर आ गया

ख़ून-पसीने की क़ीमत वसूलने गया था वहां
मैं फरेब की उस मंडी से लुटकर आ गया

बर्बादी, सिसकियां, आह मौक़ा हैं उसके लिए
बेबसी को वो सियासी मोहरा बनाकर आ गया 

सरकारी दर पर भी खैरात से ज्यादा कुछ न मिला
मैं देश की खुशहाली के गीत गाकर आ गया
                             सुनील राऊत