Saturday, January 23

इंसान ढूंढ रहा हूं...

शहरों में, बस्तियों में, सियासी हस्तियों में
बड़ों में, नन्हों में, किताबों के पन्नों में 
इंसान ढूंढ रहा हूं

जो धंस गया है जाति के दलदल में
गुम हो गया है सियासी प्रपंच-छल में 

अपने ही ईश को बड़ा बनाने की चाह में
जो खो गया है अधर्म की राह में  
इंसान को ढूंढते परेशां-हैरान हो गया
कांटो भरी राह है, लहूलुहान हो गया

जेहनियत के खांचों में कटा-पिटा, बंटा-बंटा
हर इंसान अब हिंदू-मुसलमान हो गया

रंग-रूप,वेश का हो रहा कारोबार है
नफरतों के बीज ले रहे पेड का आकार है

ये कौन हैं जो कर रहे मानवता पे प्रहार है
जवाबों के इंतज़ार में सवाल हो गया

छीनकर, फोड़कर, तोड़कर, मारकर
क्या पा लेगा तू युद्ध ये जीतकर

छल कपट छोड़ दे, तोड़ दे ये भरम
विनाश की राह ही ले जाएगा ये चरम

हर प्‍यासी चट्टान को प्यार से जो सींच दे
भर दे हर उदास आंगन को जो बहार से

हर ओर जो बिखेर दे मौसम की मुस्कान को
मैं ढूंढ रहा हूं ऐसे ही इंसान को 

                    सुनील राऊत 

2 comments:

  1. बहुत खूबसूरत फरमाया हैं आपनें।

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