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बातों-बातों में
मन की बात...
Tuesday, March 29
मेरी आंखें अब उजाले से कतराती, डरती हैं
बनाकर तकिया हाथ का फुटपाथ पे सोया था
जो कल तक गणतंत्र के उल्लास में खोया था
मेरी आंखें अब उजाले से
डरती,
कतराती
हैं
इन्हीं आंखों में मैंने कल का खाब पिरोया था
सुनील
ये अख़बार अम्न में ज़हर घोलते हैं...
वो पूछता है जाति, धरम बोलता है
ये अख़बार अम्न में ज़हर घोलता है
बच सकों तो बचों ख़बरों के सौदागर से
ये सिक्कों के भार से लाशें तौलता है
धर्म से हिंदू होना क्या ख़ता है हमारी
ये सियासत देखकर ख़ून ख़ौलता है
कुछ इज़ाफ़ा हो गया है मेरी अक़्ल में
मैं जानता हूं दरबार में सच डोलता है
मत भूल कि उसी के हाथ है तेरी ताक़त
वो आसानी से दुनिया की गिरह खोलता है
सुनील राऊत
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